स्कूली शिक्षा विभाग में मानसूनी हलचल
मास्साब की छुटटी पर सबकी नजर
तीर्थ चेतना न्यूज
देहरादून। राज्य के स्कूली शिक्षा विभाग में मानसूनी हलचल जोरों पर है। स्कूलों के अवकाश इसके केंद्र में हैं। ये हलचल शांत पानी में कंकड़ की तरह दिख और महसूस हो रही है। बताया जा रहा है कि मास्साबों की छुटटी पर सबकी नजर है।
इन दिनों उत्तराखंड का स्कूली शिक्षा विभाग मानसून अवकाश पर विचार कर रहा है। इस पर सोशल मीडिया में तमाम टिप्पणियां देखने और सुनने को मिल रही हैं। बहरहाल, सवाल उठ रहा है कि ग्रीष्म और शीतकालीन अवकाश के बाद एका एक मानसून अवकाश का कंसेप्ट कैसे आया।
दरअसल, आधुनिक विकास की वजह से हाल के सालों में मानसून सीजन की इमेज सावन की घटा से जुदा हो गई है। अब मानसून सीजन का मतलब भूस्खलन, जल भराव, रास्तों का टूटना, बाढ़ जैसे हालात आदि आदि हो गए हैं।
इसे एक तरह से प्रकृति पर थोपा जा रहा है। जबकि ये फेल इंजीनियरिंग और फेल प्लानिंग का मामला है। विकास का मौजूदा तरीका नहीं बदला गया तो मानसून सीजन हर साल डरावना ही लगेगा। ये बड़ा व्यापक विषय है। इस पर बड़ी चर्चा और अनुभवों का साझा करने की जरूरत है।
इसे सिर्फ स्कूलों में मानसून अवकाश तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए। दावे के साथ कहा जा सकता है कि पांच-सात दिन स्कूलों में छुटटी से बच्चों की पढ़ाई प्रभावित नहीं होती। पढ़ाई प्रभावित हो रही है शिक्षकों को शिक्षणेत्तर कामों में लगाने से।
समाज का भी यही मानना है। समाज भी परंपरागत ग्रीष्मकालीन और शीतकालीन अवकाश का पक्षधर है। मानसून में विवेकाधीन अवकाशों का उपयोग किया जा सकता है। नरेंद्रनगर ब्लॉक में प्राथमिक और जूनियर हाई स्कूल के शिक्षकों के बीच किए गए सर्वे में ग्रीष्मकालीन और शीतकालीन अवकाश की ही वकालत की गई।
शिक्षक ये मानते रहे हैं कि उन पर ग्रीष्मकालीन अवकाश एक तरह से थोपा जा रहा है। अन्य सरकारी कार्मिकों की तरह छुटिटयों की व्यवस्था उन पर भी लागू होनी चाहिए। यही नहीं स्कूलों की छुटटी को लेकर समाज, सरकार, अधिकारियों और शिक्षणेत्तर कर्मियों में अलग तरह का दर्शन भी विकसित हो रहा है।
एक अधिकारी और शिक्षणेत्तर कर्मी की साल की 30 ईएल दिखती नहीं हैं। जबकि दो दिन स्कूल बंद होना सबको दिखता है। गर्मी की छुटटी भी दिखती हैं और सर्दियों की भी। यदि स्कूल 12 मासी हो जाएं तो शिक्षकों की छुटटी भी नहीं दिखेंगी। सोशल मीडिया में इस प्रकार के तर्क भी सामने आ रहे हैं।