डा. अर्चना धपवाल।
प्रकृति की व्यवस्थाओं में मानवीय हस्तक्षेप की हद तय करने का वक्त आ गया है। प्रकृति की व्यवस्थाएं प्राणी के कल्याण के लिए हैं। इससे जरूरतें पूरी हो सकती हैं लोभ-लालच नहीं। वैश्विक महामारी कोरोना का यही संदेश है।
सुकुमार कवि सुमित्रानन्दन पंत ने कविता के माध्यम से इसे इंगित भी किया है। यहॉ मिली, मॉ के ऑचल की छॉव, शाश्वत स्नेह , निश्छल प्यार। देवकी नहीं मिली तो क्या ? प्रकृति रही सदा उनके साथ। वास्तव में प्रकृति मनुष्य के जीवन में एक जननी की भूमिका में रही है। जिस प्रकार मॉ अपने बच्चों को हर तरह से सुरक्षित रखने का प्रयास करती है। ठीक उसी प्रकार प्रकृति भी विभिन्न पेड़ पौधों ,पर्वतों ,जंगलों आदि से मानव जीवन को पोषित करती आयी है।
प्रकृति की गोद में टहलने तथा प्राकृतिक जड़ी बूटियों के सेवन से अनेक घातक बीमारियों एवं संक्रमण से निजात मिल सकती है। प्रकृति के करीब रह कर ही मनुष्य अपनी प्रतिरोधक क्षमता ब-सजय़ा सकता है। हमारे पूर्वजों ने इसे अच्छे जीया है। विकास के अंधानुकरण से हम भटक गए हैं। हमने प्रकृति से सामंजस्य का रिश्ता तोड़कर दोहन का रिश्ता बना दिया।
यही बात अब प्रकृति को खटकने लगी है। उसे लगने लगा है कि चिड़ियों की चहचहाट,नदियों की कल-कल, और हवा की सरसराहट से मानव का खास मतलब नहीं रह गया है। उसने प्राणु वायु और प्रकृति की व्यवस्थाओं को लैब में कैद करने का हुनर सीख लिया है। इस पर वो इतराने भी लगाया है। यहीं पर उससे चूक हो गई है।
दरअसल, कृत्रिमता में जीवन का सच नहीं है। जीवन की सत्यतता के लिए प्रकृति जरूरी है। उसके साथ सामंजस्य बनाना होगा। उसकी व्यवस्थाओं की कद्र करनी होगी। जब-जब मानव इस बात से भटका है तो प्रकृति ने विभिन्न तरीकों से संतुलन बनाया। यही कारण है कि वर्तमान में आये कोविड-19 के वैश्विक संकट इसका प्रमाण है। इससे पूर्व भी ऐसा होता रहा है।
कोरोना संकट ने विश्वव्यापी स्तर पर अधिकतर देशों को भीतर और बाहर से पूरी तरह प्रभावित किया है। प्राकृतिक आपदा कोई भी हो मानव जीवन को कुछ न कुछ सीख दे कर जाती है इसलिए आपदाओं का विश्लेषण कर प्राप्त ज्ञान का सदपयोग किया जाना आवश्यक है।
लगभग 100 वर्ष पहले स्पेनिश फलू नामक एक वैश्विक संकट आया था जिसने दुनिया की बहुत बड़ी आबादी को लील लिया था। परन्तु मानव केवल विकास की राह पर चलने के लिए प्रकृति के मानकों की अनदेखी करता रहा। महात्मा गॉधी जी ने भी मानव को भौतिक विकास के प्रति सचेत किया था।
वर्तमान कोरोना संकट हमें पुनः आगाह कर रहा है कि मानव जाति की सुरक्षा पृथ्वी और पर्यावरण पर निर्भर करती है यद्यपि इस काल के दौरान होने वाले लॉकडाउन की बंदिशें मनुष्य के लिए बंधन साबित हो रही है। परन्तु प्रकृति और पर्यावरण के लिए यह स्वतन्त्रता प्रदान करने जैसा है।
उतराखण्ड प्रदेश के मध्य हिमालय में स्थित वुग्यालों में अप्रतीम हरितिमा फैली हुई है क्योंकि लॉकडाउन के कारण यहॉ मानव हस्तक्षेप न होने के कारण दुर्लभ औषधीय पादपों का दोहन कम हुआ है और जंगली जीव जन्तु भी कई जगहों पर स्वच्छन्द होकर मानव बस्तियों में विचरण करने लगे हैं।
ईश्वर के द्वारा उकेरी गई इस अप्रतीम कृति पर मनुष्य द्वारा तकनीकी विकास व अज्ञानता की वजह से लगातार कालिख पोती जा रही है। इस काल में हुये लॉकडाउन में न्यूनतम मानव हस्तक्षेप के कारण प्रकृति ने फिर से श्रृंगार करना शुरू कर दिया है।
अतः मनुष्य को यदि वर्तमान तथा भविष्य को सुरक्षित रखना है तो उसे अत्याधुनिक जीवन शैली का परित्याग कर सीमित संसाधनों के साथ संयमित जीवन यापन करना होगा । तथा विकास के साथ साथ प्रकृति का संरक्षण करना होगा। जहॉ कोरोना संकट ने मानव जीवन के लिए चुनौती खड़ी कर दी है वहीं लॉकडाउन प्रकृति के लिए वरदान साबित हो रहा है।
लॉकडाउन के कारण सभी प्रवासी भारतीय अपने अपने गॉवों ,घरों की ओर पलायन कर रहे हैं जिससे कि वीरान तथा उजाड़ हो चुकी बस्तियां पुनः जीवंत होने लगी हैं। संकट की घड़ी में यह एक शुभ संकेत भी है कि भारत का जो वास्तविक स्वरूप गॉव में बसता था, साकार होने जा रहा है। तथा पलायन के कारण मैदानी क्षेत्रों में हुये जनसंख्या दबाव को कम करने में सहायक होगा। जिससे प्रकृति अपने वास्तविक स्वरूप का वरण कर सकेगी।
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