प्रो. मृदुला जुगरान।
उत्तराखंड में सावन आते ही व्यवस्था और सरकारी तंत्र की विफलताओं के दृश्य एक के बाद एक सामने आते हैं। जिसमें यही दुआ मांगी जाती है कि हे प्रभो रक्षा करो।
प्रो. मृदुला जुगरान ने इसको इन पंक्तियों के माध्यम से से रेखांकित किया है।
(सावन के घाव )
पहले सावन के आते ही क्या मस्त बहारें आती थीं
खुशियां नाचा करती घर – घर तरुणाई क्या इठलाती थी
मेंहदी से रंजित करतल को मुग्धा घूंघट की ओट किए
बस अनिमिष तकती रहती थी मन मे प्रियतम की याद लिए।
पेडों पर झूले पडते ही मन वृन्दावन बन जाता था
वह कृष्ण कन्हैया गोकुल का सबके मन में बस जाता था
सावन की खडी झडी आई कितने कवियों के छंद खुले
शब्दों ने किया श्रृंगार तथा कितनी नदियों के बंध मिले ।
कितनी धाराएं गले मिली यह धरा सुंदरी हरित हुई
कितने द्रुम दल स्वागत करते मदमस्त फुहारें झरित हुईं ।
पर आज सभ्यता के युग ने सावन की खुशियाँ छीनी हैं
पर्वत उजडे , जंगल उजडे पैसे की खींचातानी है ।
अब जैसे ही सावन आता है नदियां फुंकारे भरती हैं
वे कालसर्पिणी बन जीवन का विषमय दंशन करती हैं ।
उनके तट बेकाबू होकर भवनों को जर्जर करते हैं
कुछ जान बचाकर भाग चले कुछ वहीं दफन हो जाते हैं ।
सरकार ने वादे बहुत किए पर सावन से अनुबंध नहीं
हर तरफ मुहल्ले आशंकित ,इस बार हमारी खैर नहीं ।
धरती का सुख चौपट करते सडकों पर पाहन गिरते हैं
कुछ दूर देश के पथिक यहां वाहन समेत ही मरते हैं ।
बरसों से बनती पुलिया पर तकरार अभी भी बाकी है
इनके विकास पैमानों में अब सर्वनाश ही बाकी है ।
अब हमें सुरक्षा दो प्रभुजी क्यों नहीं दीवार बनाते हो
गंगा यदि रौरव रूप धरे तुम हमको क्यों बहलाते हो ?
ऐसा सावन तो दिखा नहीं , बद्री बाबा आशंकित हैं
यह राज हमारा कैसा है ! भगवान यहां खतरे में है।
बस विगत कई वर्षों से हम यह दर्द सुनाते आए हैं
सावन की आहट पाते ही कुछ घाव हरे हो आए हैं।।